Menu
blogid : 12637 postid : 8

तेरे होठों पे आना चाहती हूँ

अभिप्राय
अभिप्राय
  • 4 Posts
  • 127 Comments

तेरे होठों पे आना चाहती हूँ


ना गैरों से ना अपनों से

शिकवा और शिकायत है

अपने दुःख को अपने सुख को

प्रीत बनाना चाहती हूँ

हृदय उड़ेल मनोव्यथा को

कागज़ पर लिखना चाहती हूँ

अपने हाथों अपनी किस्मत की

नई लकीर खींचना चाहती हूँ |


गा सकूँ मैं अपना राग

अपने मन के आँगन में

आँख मूँद कर शांत भाव से

मग्न हो उठूँ खुद में ही

और साँझ का सूरज बन कर

मैं डूबूँ गहरे सागर में

ऐसी ही कुछ तस्वीरों से

एक गीत बनाना चाहती हूँ |


सरस्वती की मूरत बन कर

और हाथों में वीणा लेकर

ज्ञान स्वरूपा विद्या को

अपने भीतर लाना चाहती हूँ

सुर की नदिया में बहकर

कठोर शब्द की वाणी तोड़

प्रेम-भाव के तारों को गढ़

मधुर संगीत बनाना चाहती हूँ |


ना बसंत ऋतु की गुलशन हूँ

ना फागुन की पतझड़

सूखे पत्तों-सा उड़ –उड़ कर

ना ठण्ड भरी वादियों की सिकुड़न

हाँ ! जल-जल बुझना चाहती हूँ

सहनशीलता के दीपक में

कुंदन-सा मुखमंडल लेकर

बाती बनकर अँधियारे को

रोशन करना चाहती हूँ |


चहार दीवारी में महफूज़ सही

पर खतरों से लड़-टकरा कर

अब आईने के सामने

मैं दुनिया के मंच पर

दस्तक देना चाहती हूँ

जो तन्हाई में कहती थी

और तन्हाई ही सुनती थी

अब ऐसी ख़ामोशी तोड़

महफ़िल में आना चाहती हूँ |


तस्वीर ये मेरे चेहरे की

कभी तो मानो ढल सकती है

पर इन वेदनाओं की छोटी इच्छा

पूर्ण कभी ना हो सकती है

मुझे पढ़ कर अपने नयन से

मन तृप्त मेरा तू कर देना

इसीलिए मैं कविता बनकर

तेरे होंठों पे आना चाहती हूँ |


–धवालिमा भीष्मबाला

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply