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बस जगते रहना रातों में
“इस कविता को मैंने एक कहानी
का रूप दिया है, एक पक्षी की
आवाज़ में जो अपनी सारी
उम्र एक परायी दुनिया में
बिताता है और जब लौटता है
तो सुनियए कि वह अपने भरे हुए गले से
अपनों से क्या-क्या कहता है |”
लिये विरस मुस्कान होंठ पे
कर के हृदय कठोर चला
आँखों में था भ्रम ही भ्रम
न जाने किस ओर चला |
सालों-साल सब बीत गए
न चैन मिला दीवारों को
घर जाकर सब बात कहूँगा
कुछ अपने द्वार-मुहारों को |
दिया बहुत तुमने परदेस
पर याद बहुत घर आता है
सब तो पाया देस तुम्हारे
मन को कुछ न भाता है |
कल जाऊँगा आँगन अपने
यह तुमसे कहने आया हूँ
माफ़ी दे देना भूल-चूक
कुछ तुमको न दे पाया हूँ |
पंख खोल परदेस से लौटा
खर-पतवार जुटाने को
छोटी-सी बगिया में अपने
घर-संसार बसाने को |
आँखें मेरी भर-भर आईं
बैठा जब मैं गाथा गाने
बीते कैसे वे भारी दिन
गिन–गिन लगा सुनाने |
सुख-चैन कहाँ परदेस में
मिले कहाँ ओ ! पुरवाई
राहों में थी खड़ी हुई बस
गली-गली में रुसवाई |
सूने आसमान से उतरा
धरती का हूँ मैं प्यासा
हाँ, अब तो गले लगा लो
यही मेरी है अभिलाषा |
अब बरस उठो सावन-भादों
लो, खड़ा हूँ तुम्हें नहाने
तुम सँग झूमा-नाचा, गाया
मीठे-मीठे गीत-तराने |
रिश्तों ने ऐसा मोड़ लिया
ज्यों कटी पतंग से डोर
कितना तरसा ओ, पीपल
मन आने को इस ओर |
रंग न कोई आसमान में
बाग में कोई फूल नहीं
ऐसे मंजर पे जा पहुँचा
कोई नाव औ’ कूल नहीं |
भूली-बिसरी सारी बातें
याद मगर सब बातें
सुबह-शाम आँसू रोके
थी चिल्लातीं मेरी रातें |
हर मौसम में तड़पा हूँ
तू क्या जाने हरजाई
कोई नहीं कर सकता है
मेरे आसूँ की भरपाई |
हर रोज सवेरे उठ कर
ना जाने कब सो जाता
गठियाया आँचल हाथों में
दिल भर-भरके रो जाता |
काश कहीं कोई मिल जाए
मुझको अपना ही जैसा
लिये अरमान पंख पसार
उड़ता खुली हवाओं-जैसा |
धूप मुझे न जँची वहाँ
न छाँव वहाँ सहलाती थी
ऐसा गाँव कहीं भी न था
जिसकी आँख सुहाती थी |
क्या हालत कैसी मज़बूरी
कैसे ओ ! मीत बताऊँ
आने को तरसा हूँ कितना
किस धुन तुम्हें सुनाऊँ |
मैं ना कोई गीत सुनाता
ना गुनगुन कर पाता था
कोई बोली अपनी थी ना
अपनी व्यथा बताता था |
क्यों भेजा उस पार मुझे
जब रूप-स्वरुप तुम्हारा हूँ
नदियो के दर्पण में देखो
मैं भी प्रतिरूप तुम्हारा हूँ |
खोज किसी का करता था
आस किसी की रहती थी
पगडण्डी पर चुभते काँटे
हर बात खटकती रहती थी |
मन कहीं खोया हुआ-सा
तन कहीं सोया हुआ
लग रहा था चमन में
हर फूल क्यों रोया हुआ |
धरती कहती ही रहती
अंबर सुन-सुन कर रहता
कब आऊँगा बाग तुम्हारे
बस आशाएँ बुनता रहता |
अनजाने रंगों में रंग कर
सारे ख्वाब मिटा डाला
अनपहचानी दुनिया में
जीवन हाय! बीता डाला |
वो चोट थपेड़े-सी लूँगा
खा लूँगा कुछ पी लूँगा
थोड़े से ही जीवन में
सारी दुनिया जी लूँगा |
सुन कर विलाप तुम मेरा
बस थोड़ा-सा समझा दो
बरसा के दो बूँद ही आँसू
धरती-आकाश मिला दो |
अंत में इतना कहना अब
कुछ छुटी-छुटाई बातों में
जब तक रहना मेरे संग
बस जगते रहना रातों में |
–धवलिमा भीष्मबाला
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